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Botany (वनस्पति विज्ञान)

Botany (वनस्पति विज्ञान)


 * विभिन्न प्रकार के पेड़, पौधों तथा उनके क्रियाकलापों के अध्ययन को वनस्पति विज्ञान (Botany) कहते हैं।
* (थियोफे्टस(Theophrastus) को वनस्पति विज्ञान का जनक कहा   जाता है।


पादपों का वर्गीकरण (Classification of Plants);

* एकलर (Eichler) ने 1883 ई. में वनस्पति जगत का वर्गीकरण निम्न रूप से किया जाता है।


अपुष्पोद्भिद् पौधा (Cryptogamus);
* इस वर्ग के पौधों में पुष्प तथा बीज नहीं होता है। इन्हें निम्न समूह में बाँटा गया है-

थेलोफाइटा (Thalophyta):
* यह वनस्पति जगत का सबसे बड़ा समूह है। इस समूह के पौधों का शरीर सुकाय (Thalus) होता है, अर्थात् पौधे जड़, तना एवं पत्ती आदि में विभक्त नहीं होते। इसमें संवहन ऊतक नहीं होता है।

शैवाल (Algae)
*  शैवालों के अध्ययन को फाइकोलॉजी (Phycology) कहते हैं।
*  शैवाल प्रायः पर्णहरित युक्त, संवहन ऊतक रहित, आत्मपोषी (Autotrophic) होते हैं। इनका शरीर सुकाय सदृश होता है।

लाभदायक शैवाल
1. भोजन के रूप में : फोरफाइरा, अल्बा, सरगासन, लेमिनेरिया, नॉस्टॉक आदि ।
2. आयोडीन बनाने में : लेमिनेरिया) फ्यूकस, एकलोनिया आदि।
3. खाद के रूप में: नॉस्टॉक, एनाबीना, केल्प आदि।
4. औषधियाँ बनाने में : क्लोरेला से क्लोरेलिन नामक प्रतिजैविक एवं लेमिनेरिया से टिंचर आयोडीन बनायी जाती है।
5. अनुसंधान कार्यों में : क्लोरेला एसीटेबुलेरिया, बेलोनिया आदि।

नोट : क्लोरेला (Chlorella) नामक शैवाल को अंतरिक्ष यान के केबिन के हौज में उगाकर अंतरिक्ष यात्री को प्रोटीनयुक्त भोजन, जल और ऑक्सीजन प्राप्त हो सकते हैं।

कवक (Fungi):
*  इसके अध्ययन को कवक विज्ञान (Mycology)कहा जाता है।
*  कवक पर्णहरित रहित, संकेन्द्रीय, संवहन ऊतकरहित थैलोफाइट है।
* कवक में संचित भोजन ग्लाइकोजेन के रूप में रहता है। इनकी कोशिकाभित्ति काइटिन (Chitin) की बनी होती है।
*  कवक पौधों में गंभीर रोग उत्पन्न करते हैं। सबसे अधिक हानि रस्ट (Rust) और स्मट (Smut) से होती है। पौधों में कवक के द्वारा होने वाला प्रमुख रोग निम्न हैं-

रोग                                            कवक
दमा                                एस्पर्जिलस फ्यूमिगेट्स
एथलीट फूट                    टीनिया पेडिस
खाज                               एकेरस स्केबीज
गंजापन                           टीनिया केपिटिस
दाद                                ट्राइकोफायटान लेसकोसय


सरसों का सफेद रस्ट (White rust of crucifer), गेहूँ का ढीला (Loose smut of wheat), गेहूँ का किट्ठू रोग (Rust of wheat),  की अंगमारी (Blight of potato), गन्ने का लाल अपक्षय (Red rot of sugarcane), मूँगफली का टिक्का रोग (Tikka diseases of ground nut), आलू का मस्सा रोग (Wart diseases of potato), धान की भूरी अर्ज चित्ति (Brown leaf spot of Rice), आलू की पछेला अंगमारी (Late Blight of Potato), प्रांकुरों का डैंपिंग रोग(D amping off of seedlings)

जीवाणु (Bacteria):
*  इसकी खोज 1683 ई. में हॉलैंड के एण्टोनीवान ल्यूवेनहॉक ने की।
*  जीवाणु विज्ञान का पिता ल्यूवेनहाक को कहा जाता है।
* एहरेनबर्ग (Ehrenberg) ने 1829ई. में इन्हें जीवाणु नाम दिया।
*  1843-1910ई. में रॉबर्ट कोच ने कॉलरा तथा तपेदिक के जीवाणुओं की खोज की तथा रोग का जर्म सिद्धान्त बताया।
* 1812-1892 ई. लुई पाश्चर ने रेबीज का टीका, दूध के पाश्चुराइजेशन की खोज की ।
*  आकृति के आधार पर जीवाणु कई प्रकार के होते हैं-
1. छड़ाकार या बैसिलस (Bacillus ): यह छड़नुमा या बेलनाकार होता है।

2. गोलाकार या कोकस (Cocus): ये गोलाकार एवं सबसे छोटे जीवाणु होते हैं।
3. कोमा-आकार (Comma Shaped) या विब्रियो (Vibrio): अंग्रेजी के चिह्न कोमा (, ) के आकार के; उदाहरण विक्रिया कॉलेरी आदि ।
4. सर्पिलाकार (Spirillum): स्प्रिंग या स्क्रू के आकार के।

*  ऐजोटोबैक्टर (Azotobacter), एजोस्पाइरिलम (Azospirillum) तथा क्लोस्ट्रीडियम (Clostridium) जीवाणु की कुछ जातियाँ स्वतंत्र रूप से मिट्टी में निवास करती हैं व मिट्टी के कणों के बीच स्थित वायु के नाइट्रोजन का स्थिरीकरण करती हैं।

एनाबीना (Anabaena) तथा नॉस्टॉक (Nostoc) नामक सायनोबैक्टीरिया वायुमंडल की N, का स्थिरीकरण करते हैं।

* राइजोवियम Rhizobium   तथा  ब्रेडीराइजोबियम (Bradyrhizobium) इत्यादि जीवाणु की जातियाँ लैग्यूमिनोसी (मटर कुल) के पौधे की जड़ों में रहती हैं और वायुमंडलीय N, का स्थिरीकरण करती हैं।
* दूध को अधिक दिनों तक सुरक्षित रखने के लिए इसका पाश्चीकरण (Pasteurization) करते हैं। इसमें दो विधियाँ होती हैं-

1. Low Temperature Holding Method (LTH):  दूध को 62.8°C पर 30 मिनट तक गरम करते हैं।
2. High Temperature Short Time Method (HTST):  दूध को 71.7°C पर 15 सेकेण्ड तक गरम करते हैं।

*  चर्म उद्योग में चमड़े से बालों और वसा हटाने का कार्य जीवाणुओं के द्वारा होता है। इसे चमडा कमाना (Tanning) कहते हैं।
*  आचार, मुरब्बे, शर्बत को शक्कर की गाढ़ी चासनी में या अधिक नमक में रखते हैं ताकि जीवाणुओं का संक्रमण होते ही जीवाणुओं का जीव द्रव्यकुंचन (Plasmolyis) हो जाता है तथा जीवाणु नष्ट हो जाते हैं, इसीलिए आचार, मुरब्बे बहुत अधिक दिनों तक खराब नहीं होते।
*  शीत संग्रहागार (Cold storage)में न्यून ताप (-10°C से -18°C) पर सामग्री का संचय करते हैं।

ब्रायोफाइटा (Bryophyta):
* यह सबसे सरल स्थलीय पौधों का समूह है। इस प्रभाग में लगभग 25,000 जातियाँ सम्मिलित की जाती हैं।
*  इसमें संवहन ऊतक अर्थात् जाइलम एवं फ्लोएम का पूर्णतः अभाव होता है।
* इस समुदाय को वनस्पति जगत का एम्फीबिया वर्ग भी कहा जाता है।
*  इस समुदाय के पौधे मृदा अपरदन को रोकने में सहायता प्रदान करते हैं।
*  स्फेगनम (Sphagnum) नामक मॉस अपने स्वयं के भार से 18 गुना अधिक पानी सोखने की क्षमता रखता है। इसलिए माली इसका उपयोग पौधों को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाते समय सूखने से बचाने के लिए करते हैं।
*  स्फेगनम मॉस का प्रयोग ईंधन के रूप में किया जाता है।
* स्फेगनम मॉस का प्रयोग ऐन्टिसेप्टिक के रूप में भी किया जाता है।

टेरिडोफाइटा (Preridophyta)
* इस समूह के पौधे नमी छायादार स्थानों, जंगलों एवं पहाड़ों पर अधिकता से पाये जाते हैं।
* पौधे का शरीर जड़, तना, शाखा एवं पत्तियों में विभेदित रहता है। तना साधारण राइजोम के रूप
में रहता है।
* पौधे बीजाणु जनक होते हैं और जनन की क्रिया बीजाणु के द्वारा होती है।
* इस समुदाय के पौधों में संवहन ऊतक पूर्ण विकसित होते हैं। परन्तु जाइलम में वेसेल (Vessels) एवं फ्लोएम (phloem) में सहकोशाएँ (Companion cells) नहीं होती हैं।

पुष्पोदभिद्र या फूल वाला पौधा  (Phanerogamus):
*  इस समूह के पीधे पूर्ण विकसित होते हैं। इस समूह के सभी पीधों में फूल, फल तथा बीज होते हैं। इस समूह के पौधों को दो उपसमूहों में बाँट सकते हैं-
1. नग्नबीजी 
2. आवृत

नग्नबीजी (Cymnosperm);
*  इनके पौधे वृक्ष, झाड़ी या आरोही के रूप में होते हैं।
*  पौधे काष्ठीय, बहुवर्षी और लम्बे होते हैं।
*  इनकी मुसला जड़ें पूर्ण विकसित होती हैं।
* परागण की क्रिया वायु द्वास हो्ती है।
*  ये मरुद्भिद् (Xerophytic) होते हैं।
*  वनस्पति जगत का सबसे ऊँचा पौधा सिक्रोया सेम्थरविरेंस इसी के अन्तर्गत आता है । इसकी ऊँचाई 120 मीटर है । इसे कोस्टरेडबुड ऑफ कैलीफोर्निया भी कहते हैं। 
* सबसे छोटा अनावृतबीजी पौधा जैमिया पिग्मिया है।
*  जीवित जीवाश्म साइकस (Cycas), जिंगो बाइलोवा (Ginkgo biloba) व मेटासिकोया (Metasequoia) है ।
* जिंगो बाइलोवा (Ginkgo biloba) को मेडन हेयर ट्री (Maiden hair tree) भी कहते हैं।
* साइकस (Cycas) के बीजाण्ड (Ovules) एवं नरयुग्मक (Antherogoids) पादप-जगत में सबसे बड़े होते हैं।
* पाइनस के परागकण इतनी तादाद में होते हैं कि पीले बादल (Sulpher showers) बन जाते हैं ।

विषाणु
विषाणु की खोज रूस के वैज्ञानिक इवानविस्की ने 1892 ई. में की। (तम्बाकू के मोजैक रोग पर खोज के समय) इनकी प्रकृति सजीव और निर्जीव दोनों प्रकार की होती है। इसी कारण इन्हें सजीव और निर्जीव की कड़ी भी कहा जाता है।

विषाणु के निर्जीव होने के लक्षण-
1. ये कोशा रूप में नहीं होते हैं।
2. इनको क्रिस्टल बनाकर निर्जीव पदार्थ की भाँति बोतलों में भरकर वर्षों तक रखा जा सकता है।

विषाणु के  सजीव जैसे लक्षण-
1. इनके न्युक्लिक अम्ल का द्विगुणन होता है।
2. किसी जीवित कोशिका में पहुँचते ही ये सक्रिय हो जाते हैं, और एन्जाइमों का संश्लेषण करने लगते हैं।

परपोषी प्रकृति के अनुसार विषाणु तीन प्रकार के होते हैं--
1.पादप विषाणु इसका न्यूक्लिक अम्ल में आर.एन.ए. (RNA) होता है।
2. जन्तु विषाणु : इनमें डी.एन.ए. (DNA) या कभी-कभी आर. एन.ए, (RNA)भी पाया जाता है।
3. वैक्ट्रियोफेज या जीवाणुभोजी : ये केवल जीवाणुओं पर आश्रित रहते हैं। ये जीवाणुओं को मार डालते
हैं। इनमें डी.एन.ए. (DNA)पाया जाता है। जैसे-टी-2 फैज।

नोट: जिस विषाणु में आनुवंशिक पदार्थ होता है उसे रेट्रोविषाणु कहते हैं।

जिम्नोस्पर्म का आर्थिक महत्व :
1.भोजन के रूप में : साइकस के तनों से मंड निकालकर खाने वाला साबूदाना (Sago) बनाया जाता है । इसलिए साइकस को सागो- पाम कहते हैं।
2. लकड़ी : चीड़ (Pine), सिकोया, देवदार, स्प्रूस आदि की लकड़ी से फर्नीचर बनते हैं।
3. वाष्पीय तेल : चीड़ के पेड़ से तारपीन का तेल, देवदार की लकड़ी से सेड्रस तेल (Cedrus oil) तथा जूनीपेरस की लकड़ी से सेडस्काष्ठ तेल मिलता है।
4. टेनिन: चमड़ा बनाने तथा स्याही बनाने के काम में आता है।
5. रेजिन कुछ शंकु पौधों से रेजिन निकाला जाता है जिसका प्रयोग वार्निश, पॉलिश, पेंट आदि बनाने में होता है।

आवृतबीजी (Angiosperm):
*  इस उपसमूह के पौधों में बीज फल के अन्दर होते हैं।
* इनके पौधों में जड़, पत्ती, फूल, फल एवं बीज सभी पूर्ण विकसित होते हैं।
* इस उपसमूह के पौधों में बीज में बीजपत्र होते हैं। बीजपत्रों की संख्या के आधार पर पौधों को दो वर्गों में विभाजित किया गया है-
1. एकबीजपत्री पौधे 
2. द्विबीजपत्री पौधे

* एकबीजपत्री पौधे : उन पौधों को कहते हैं जिनके बीज में सिर्फ एकबीजपत्र होता है। इनके कुल का नाम एवं प्रमुख पौधों का नाम निम्न सारणी में दी गई है-

क्र. कुल का नाम                    प्रमुख पौधों का नाम
1. लिलिएसी (Liliaceae)         लहसुन, प्याज
2. पाल्मी (Palmae)                 सुपारी, ताड़, नारियल, खजूर
3  ग्रेमिनेसी (Cramineceae)     गेहूँ, मक्का, बाँस, गन्ना, चावल, ज्वार, बाजरा, जौ, जई आदि

*  द्विबीजपत्री पौधे : इस वर्ग में वे पौधे आते हैं जिनके पौधों के बीजों में दो पत्र होते हैं। इनके कुल का नाम एवं प्रमुख पौधों का नाम निम्न सारणी में दी गई है-

क्र. कुल का नाम                             प्रमुख पौधों का नाम
1. क्रूसीफेरी (Cruciferae)               मूली, शलजम, सरसों
2. मालवेसी (Malvaceae)               कपास, भिण्डी, गुड़हल
3. लेग्यूमिनोसी (Leguminoceae)    बबूल, छुईमुई, कत्था, गुलमोहर, अशोक, कचनार, इमली तथा सभी दलहन फसल
4. कम्पोजिट (Composite)                सूरजमुखी, भृंगराज, गेंदा, कुसुम,सलाद, डहेलिया आदि
5. रुटेसी (Rutaceae)                         नींबू, चकोत्तरा, सन्तरा, मुसम्मी, बेल
6. कुकुरबिटेसी (Cucurbitaceae)       तरबूज, खरबूजा, टिण्डा, कद्दू, लौकी, खीरा, ककड़ी, परवल, चिचिन्डा, करेला
7. सोलेनेसी (Solanaceae)                  आलू, मिर्च, बैंगन, मकोय, धतूरा, बैंलाडोना, टमाटर आदि
৪. रोजेसी (Rosaceae)                        स्ट्राबेरी, सेब, बादाम, नाशपाती

पादप आकारिकी (Plant Morphology);
* आकारिकी (Morphology): विभिन्न पादप भागों जैसे-जड़, तना, पत्ती, पुष्प, फल आदि के रूपों तथा गुणों के अध्ययन को आकारिकी कहते हैं।


*  जड़ (Root):  पौधा का अवरोही भाग है, जो मूलांकुर से विकसित होता है।
* जड़ दो प्रकार की होती है-
1. मूसला जड़ (Tap root) 
2. अपस्थानिक जड़ (Adventitious root)।

मूसला जड़ों का रूपान्तरण
शंकु आकार (Conical)         गाजर
कुम्भी रूप (Napiform)        शलजम, चुकन्दर
तर्कुरूपी (Fusiform)           मूली

* जड़ सदैव प्रकाश से दूर भूमि में वृद्धि करती है।

तना (Stem):
*  यह पौधे का वह भाग है जो प्रकाश की ओर वृद्धि करता है।
* यह प्रांकुर से विकसित होता है। यह पौधे का प्ररोह तंत्र बनाता है
* तनों का रूपांतरण
भूमिगत तने             उदाहरण
कन्द (Tuber)            आलू
धनकन्द (Corm)       बन्डा, केसर
शल्ककन्द (Bulb)     प्याज
प्रकन्द (Rhizome)     हल्दी, अदरक

पत्ती (Leaf)
* यह हरे रंग की होती है। इसका मुख्य कार्य प्रकाश- संश्लेषण क्रिया के द्वारा भोजन बनाना है।

पुष्प (Flower):
* यह पौधे का जनन अंग है पुष्प में बाह्य दलपुंज (Calyx), दलपुंज, (Corolla), पुमंग (Andrecum) और जायांग
(Cynoecium) पाये जाते हैं। इनमें से पुमंग नर जननांग तथा जायांग मादा जननांग हैं।
* पुमंग पुमंग में एक या एक से अधिक पुंकेसर (Stamens) होते हैं। पुंकेसर में परागकण (Pollen grains) पाये जाते हैं।
जायांग : इसमें अण्डप होते हैं। अण्डप के तीन भाग होते हैं.
1. अण्डाशय (Ovary)
2. वर्त्तिका (Style)
3. वर्तिकाग्र (Stigma)

* परागण (Pollination) परागकोष (Anther) से निकलकर अण्डप के वर्त्तिकाग्र पर परागकरणों के पहुँचने की क्रिया को परागण कहते हैं। परागण दो प्रकार से होते हैं-
1. स्व-परागण (Self-pollination),
2. पर परांगण  (Cross-pollination)|
निषेचन (Fertilization): परागनली बीजाण्ड में प्रवेश करके बीजाण्डकाय को भेदती हुई भ्रूणकोष तक पहुँचती है और परागकणों को वहाँ छोड़ देती है। इसके बाद एक नर युग्मक एक अण्डकोशिका से संयोजन करता है। इसे निषेचन कहते हैं। निषेचित अण्ड युग्मनज (Zygote) कहलाता है।
*  आवृतबीजी (Angiosperm)में निषेचन त्रिक संलयन (tripple fusion) जबकि अन्य वर्ग के पौधों में द्विसंलयन (Double fusion) होता है।
*  अनिषेक फलन (Parthenocarpy): कुछ पौधों में बिना निषेचन हुए ही अण्डाशय से फल बन जाता है। इस प्रकार बिना निषेचन हुए फल के विकास को अनिषेक फलन (Parthenocarpy) कहते हैं। साधारणतया इस प्रकार के फल बीजरहित होते हैं। जैसे-केला, पपीता, नारंगी, अंगूर एवं अनन्नास आदि।

फल का निर्माण:
* फल का निर्माण अंडाशय से होता है।
* सम्पूर्ण फलों को तीन भागों में विभाजित किया गया है-
1. सरल फल जैसे-अमरूद, केला आदि।
2. पुंज फल ( Aggregate fruit): जैसे-स्ट्राबेरी, रसभरी।
3. सग्रंथित फल (Composite fruit): कटहल, शहतूत आदि।
* कुछ फलों के निर्माण में बाह्य दलपुंज, दलपुंज या पुष्पासन आदि भाग लेते हैं। ऐसे फलों को असत्य फल (False fruit) कहते हैं।
जैसे- सेब, कटहल आदि।

कुछ फल एवं उसके खाने योग्य भाग

फल                 खाने योग्य भाग
1. सेब                पुष्पासन
2. नाशपाती        पुष्पासन
3. आम               मध्य फलभित्ति
4. अमरूद         फलभित्ति, बीजाण्डासन
5. अंगूर              फलभित्ति, बीजाण्डासन
6. पपीता             मध्य फलभित्ति
7. नारियल          भ्रूणपोष
৪. टमाटर           फलभित्ति व बीजाण्डासन
9. केला               मध्य एवं अन्तःभित्ति
10. गेहूँ               भ्रूणपोष एवं भ्रूण
11. काजू             पुष्पवृन्त, बीजपत्र
12. लीची              एरिल
13. चना               बीजपत्र एवं भ्रूण
14. मूँगफली         बीजपत्र एवं भ्रूण
15. शहतूत           रसीले परिदलपुंज
16. कटहल          परिदल पुंज व बीज
17. अनन्नास         परिदलपुंज
18. नारंगी            जूसी हेयर

पादप ऊतक (Plant tissue):
* ऊतक (Tissue) : समान उत्पत्ति, संरचना एवं कार्यों वाली कोशिकाओं के समूह को ऊतक (Tissue) कहते हैं।
* विभाज्योतकी ऊतक (Meristematic tissue): पौधे के वर्धी क्षेत्रों (Growingregions)को विभाज्योतक (Meristem)कहते हैं। इनसे बनी संतति कोशिकाएँ वृद्धि करके पौधे के विभिन्न अंगों का निर्माण करती हैं। यह प्रक्रिया पौधे के जीवनपर्यन्त चलती है।
विभाज्योतकी ऊतक के विशिष्ट लक्षण निम्न हैं-
1. ये गोल अण्डाकार या बहुभुजाकार होती है।
2. इनकी भित्तियाँ पतली व एकसार (Homogeneous) होती हैं।
3. जीवद्रव्य सघन, केन्द्रक बड़े तथा रसधानी छोटी होती है।
4. कोशिकाओं के बीच अंतरकोशिकीय स्थानों का अभाव होता है।

*शीर्षस्थ विभाज्योतक (Apical Meristems) : ये ऊतक जड़ों अथवा तनों के शीर्षों पर पाये जाते हैं तथा पौधे की प्राथमिक वृद्धि (विशेषकर लम्बाई में) इन्हीं के कारण होती है।
पार्श्व विभाज्योतक (Lateral Meristems) इनमें विभाजन होने से जड़ तथा तने के घेरे (girth) में वृद्धि होती है। अर्थात् इससे तना एवं जड़ की मोटाई में वृद्धि होती है।
अन्तर्वेशी विभाज्योतक (Intercalary Meristems): यह वास्तव में शीर्षस्थ विभाज्योतक का अवशेष है, जो बीच में स्थायी ऊतकों के आ जाने से अलग हो गये हैं। इनकी क्रियाशीलता से भी पौधा लम्बाई में वृद्धि करता है। इसकी महत्ता वैसे पौधे के लिए है जिनके शीर्षाग्र को शाकाहारी जानवर खा जाते हैं। शीर्षाग्र खा लिये जाने के कारण ये पौधे अन्तर्वेशी विभाज्योतक की सहायता से ही वृद्धि करते हैं। जैसे-घास।
*  स्थायी ऊतक (Permanent Tissue); स्थायी ऊतक उन परिपक्व कोशिकाओं के बने होते हैं, जो विभाजन की क्षमता खो चुकी हैं। तथा विभिन्न कार्यों को करने के लिए विभेदित हो चुकी हैं। ये कोशिकाएँ मृत अथवा जीवित हो सकती हैं।
*  सरल ऊतक (Simple Tissue): यदि स्थायी ऊतक एक ही प्रकार की कोशिकाओं के बने होते हैं, तो इन्हें सरल ऊतक (Simple tissue) कहते हैं।
*  जटिल ऊतक (Complex Tissue): यदि स्थायी ऊतक एक से अधिक प्रकार की कोशिकाओं के बने होते हैं, तो इन्हें जटिल ऊतक कहते हैं।
*  जाइलम (Xylem): इसे प्रायः काष्ठ (Wood) भी कह देते हैं। यह संवहनी ऊतक है। इसके दो मुख्य कार्य हैं-
1. जल व खनिज-लवणों का संवहन 
2. यांत्रिक दृढ़ता प्रदान करना।
*  पौधे की आयु की गणना जाइलम ऊतक के वार्षिक वलय को गिनकर ही की जाती है। पौधे की आयु के निर्धारण की यह विधि डेन्ड्रोक्रोनोलॉजी (Dendrochronology) कहलाती है।
* फ्लोएम (Phloem): यह भी एक संवहन ऊतक है। इसका मुख्य कार्य पत्तियों द्वारा बनाये गये भोजन को पौधे के अन्य भागों में पहुँचाना है।

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